जयंत देशमुख :- कला और संगीत: मुक्ति की ओर एक यात्रा 90 दिवसीय रंगमंच कार्यशाला

Sep 3, 2025 - 09:33
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जयंत देशमुख :- कला और संगीत: मुक्ति की ओर एक यात्रा 90 दिवसीय रंगमंच कार्यशाला
जयंत देशमुख :- कला और संगीत: मुक्ति की ओर एक यात्रा 90 दिवसीय रंगमंच कार्यशाला

जयंत देशमुख :- कला और संगीत: मुक्ति की ओर एक यात्रा

90 दिवसीय रंगमंच कार्यशाला 

संगीत और कला मानव जीवन की सबसे सुंदर साधनाएँ हैं। ये न केवल रचनात्मकता को बढ़ाती हैं, बल्कि हमें भीतर से जोड़कर एक नई ऊर्जा भी देती हैं। दुनिया का कोई भी संगीत वास्तव में भटकाता नहीं है, बल्कि हमारे मन को केंद्रित और शांत करता है। यह हमें सामाजिक कार्यों में सहयोगी बनाता है और भीतर के भावनात्मक उतार-चढ़ाव को संतुलित करता है।

संगीत में एक तरह का पागलपन है, जो हमें बंधनों से मुक्त कर देता है। यह हमारी भावनाओं को नियंत्रित करता है और आत्मा को आज़ादी का अनुभव कराता है। नाटक, चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य और अन्य कलाएँ भी मनुष्य को मुक्ति देती हैं। सिनेमा का प्रभाव गहरा जरूर होता है, लेकिन उसका अनुभव क्षणिक है, इसलिए वह हमें स्थायी मुक्ति नहीं दे पाता।

मन को शांत करना और उसे एकाग्र करना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है। सभी कलाओं का मूल उद्देश्य मन को केंद्रित करना है। अगर आप किसी कला को सीखना चाहते हैं तो शुरुआत नकल से करें। ध्यान लगाकर देखें कि कलाकार क्या कर रहा है, धीरे-धीरे वही अभ्यास आपको एकाग्रता की ओर ले जाएगा।

नाट्यशास्त्र को पाँचवाँ वेद माना गया है, जिसे नाट्यवेद कहा जाता है। कला हमें सिखाती है कि सबसे पहले स्वयं से प्रेम करें। जब हम खुद से प्रेम करना सीखते हैं, तभी हम दुनिया से सच्चा प्रेम कर पाते हैं। भीड़ का हिस्सा बनने से बचें। रोकने वाले लाखों होंगे, लेकिन अपने रास्ते पर बिना रुके चलते रहना ही सच्ची साधना है।

योग में एकाग्रता भी है, गति भी है और मुक्ति भी। खुद पर ध्यान दो, खुद पर केंद्रित रहो। योग, नृत्य और संगीत – ये तीनों साधन मन और शरीर को संतुलित करने के सबसे सुंदर माध्यम हैं। ये हमें भीतर से मजबूत और आत्मविश्वासी बनाते हैं।

जिस दिन कोई व्यक्ति सोच ले कि उसे सब कुछ आ गया है, उसी दिन उसकी प्रगति रुक जाती है। सीखना जीवनभर की एक सतत प्रक्रिया है। जितना शांत मन होगा, उतना ही काम बेहतर होगा।

कला मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र है। जब तक किसी के पास कोई कला है, उसका जीवन तृप्त रहेगा। यदि अभ्यास के लिए समय नहीं है, तो प्रदर्शन से बचें, क्योंकि हर कला स्वतंत्रता और समर्पण चाहती है।

जब भी प्रदर्शन करो, भूल जाओ कि सामने कौन बैठा है। थिएटर का अंधेरा और मंच की रोशनी इसी लिए होती है कि कलाकार मुक्त होकर अपनी अभिव्यक्ति कर सके। सिनेमा गणित है, जबकि रंगमंच अनुभव। योग और कला का अभ्यास भी ऐसा ही होना चाहिए – सहज, स्वाभाविक और तनावरहित।

हर इंसान का शरीर अलग है, जैसे उसकी खुशबू अलग होती है। हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है, हर स्त्री में एक पुरुष और हर पुरुष में एक स्त्री मौजूद है। यही संतुलन हमें सम्पूर्ण बनाता है।

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